
क्या आप जानते हैं, भारतीय संविधान दुनिया का सबसे बड़ा लिखित संविधान है इसमें न केवल हमारे अधिकारों और कर्तव्यों को लिखा गया है बल्कि यह भी बताया गया है कि देश में नए राज्यों का गठन कैसे होगा और उनकी सीमाएं कैसे तय की जाएँगी और जरुरत पड़ने पर उनमे बदलाव कैसे हो सकेगा।
भारत एक विशाल देश है और समय के साथ आगे बढ़ता है। कभी प्रशासनिक सुविधाओं के लिए तो कभी जनता की मांग पर, कई बार राज्यों को बाँटना एवं जोड़ना पड़ता है। ऐसी जरूरतों को पूरा करने के लिए संविधान का अनुच्छेद 2, अनुच्छेद 3 और अनुच्छेद 4 की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 4 को आप संविधान का मैनेजर कह सकते हैं, क्यों? क्योंकि यह अनुच्छेद बताता है कि जब कोई नया राज्य बनाना हो या किसी राज्य की सीमाओं में बदलाव करना हो, तो संविधान की अनुसूचियों (Schedules) में और संसद/विधानसभा में सीटों का बँटवारा कैसे किया जायेगा, और वह भी बिना किसी जटिल संसोधन प्रक्रिया के।
सरल शब्दों में कहें तो अनुच्छेद 4 भारतीय संघ को अधिक लचीला और व्यवहारिक बनाने में अहम भूमिका निभाता है। Digital PdhaiLikhai के आज के इस लेख में हम अनुच्छेद 4 का असली मतलब, उसकी प्रक्रिया, महत्व और इतिहास के दिलचस्प उदाहरण के साथ सरल अंदाज में समझेंगे।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 4 (मूल पाठ)
संविधान का अनुच्छेद 4 कहता है:
पहली अनुसूची और चौथी अनुसूची के संशोधन तथा अनुपूरक, आनुषंगिक और पारिणामिक विषयों का उपबंध करने के लिए अनुच्छेद 2 और अनुच्छेद 3 के अधीन बनाई गई विधियां -
- अनुच्छेद 2 या अनुच्छेद 3 में निर्दिष्ट किसी विधि में पहली अनुसूची और चौथी अनुसूची के संशोधन के लिए ऐसे उपबंध अंतर्विष्ट होंगे जो उस विधि के उपबंधों को प्रभावी करने के लिए आवश्यक हों तथा ऐसे अनुपूरक, आनुषंगिक और पारिणामिक उपबंध भी (जिनके अंतगर्त ऐसी विधि से प्रभावित राज्य या राज्यों के संसद् में और विधान-मंडल या विधान-मंडलों में प्रतिनिधित्व के बारे में उपबंध है) अंतर्विष्ट हो सकेंगे जिन्हे संसद आवश्यक समझे।
- पूर्वोक्त प्रकार की कोई विधि अनुच्छेद 368 के प्रयोजनों के लिए इस संविधान का संशोधन नहीं समझी जाएगी।
अनुच्छेद 4 क्या कहता है? (सरल भाषा में)
अगर आप इसे अधिक आसान शब्दों में समझना चाहते हैं, तो भारतीय संविधान का अनुच्छेद 4 कहता है-
जब भी संसद में अनुच्छेद 2 अर्थात भारत में नए राज्य का प्रवेश अथवा स्थापना के लिए कानून बनेगा या अनुच्छेद 3 अर्थात किसी राज्य का गठन या सीमाओं का पुनर्गठन के लिए कानून बनेगा, तो उसे (अर्थात संसद को) पहली अनुसूची और चौथी अनुसूची में जरुरी बदलाव करना होगा।
यहाँ पर सबसे दिलचस्प बात यह है कि यह बदलाव अपने आप संविधान संसोधन माने जायेंगे। कहने का मतलब यह है कि इसके लिए अनुच्छेद 368 वाली लम्बी और जटिल प्रक्रिया से गुजरना नहीं पड़ेगा। इसके साथ ही, संसद को यह भी अधिकार होगा कि वह नए राज्य अथवा बदले हुए राज्य की संसद और विधानसभाओं के लिए सीटों का निर्धारण करे और तय करे कि उनका प्रतिनिधित्व कैसे होगा।
अगर सीधे शब्दों में कहें तो अनुच्छेद 4 संसद को वह शक्ति प्रदान करता है कि वह सिर्फ एक कानून पास करके राज्यों की सीमाओं और संसद/विधानसभा में सीटों से जुड़े बदलाव कर सकती है, जिससे भारतीय संघ को लचीलापन एवं व्यवहारिकता मिलती है।
अनुच्छेद 4 के अंतर्गत प्रक्रिया
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 4 यह स्पष्ट करता है कि जब भी कभी संसद को नए राज्यों के गठन या मौजूदा राज्यों के पुनर्गठन से जुड़ा कानून बनाना होगा, तो ऐसा करने के लिए संसद को एक स्पष्ट प्रक्रिया अपनाना होगा। आइये इसे सरलतम तरीके समझते हैं-
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अनुच्छेद 2 अथवा अनुच्छेद 3 के लिए बिल पेश किया जाता है
यदि किसी नए राज्य का गठन करना हो अथवा किसी मौजूदा राज्य को जोड़ना अथवा बाँटना हो, तो इसके लिए सबसे पहले संसद में बिल पेश किया जाता है। यह कदम इस पूरी प्रक्रिया की शुरुआत होता है।
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राष्ट्रपति की सिफारिश जरुरी है
ऐसा कोई भी बिल बिना भारत के राष्ट्रपति के सिफारिश के संसद में पेश नहीं किया जा सकता है। यानि इस पूरी प्रक्रिया के लिए राष्ट्रपति की अनुमति का होना सबसे पहला एवं सबसे महत्वपूर्ण चरण होता है।
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राज्यों की राय और परामर्श
अगर प्रस्तावित कानून किसी मौजूदा राज्य की सीमा, क्षेत्रफल अथवा नाम को प्रभावित करता है, तो उस राज्य की विधानसभा से राय ली जाती है। हालाँकि, यह राय अनिवार्य रूप से मानना जरुरी नहीं है। कहने का अर्थ यह है कि यदि संसद चाहे तो सम्बंधित विधानसभा की राय को स्वीकार भी कर सकती है और नज़रअंदाज भी कर सकती है।
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संसद द्वारा कानून पारित करना
जब ऐसा बिल संसद में पास हो जाता है तब अनुच्छेद 4 के तहत संविधान की पहली अनुसूची और चौथी अनुसूची में संसोधन कर दिया जाता है और इसके बाद नए राज्य की सीमाएँ, नाम और संसद/विधानसभाओं में प्रतिनिधत्व से जुड़े बदलाव लागू हो जाते हैं।
इस तरह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 4 की यह प्रक्रिया भारतीय संविधान को लचीलापन प्रदान करती है और संसद को यह अधिकार देती है कि वह बदलते समय और परिस्थितियों के अनुसार राज्यों के गठन और पुनर्गठन को सरलतम तरीके से लागू कर सके।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 4 की खास बातें
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 4 कई मायनों में महत्वपूर्ण है। यह अनुच्छेद संसद को ऐसी शक्ति प्रदान करता है जिससे संसद जब चाहे देश की बदलती जरूरतों को ध्यान में रखते हुए राज्यों का गठन एवं पुनर्गठन कर सकती है। आइये अब इस अनुच्छेद के कुछ खास बातों को समझते हैं-
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संविधान संशोधन की ज़रूरत नहीं
वास्तव में, अनुच्छेद 4 के तहत किये गए बदलावों को संविधान संसोधन नहीं माना जाता है। कहने का अर्थ यह है कि संसद जब इस अनुच्छेद के तहत बदलाव करती है तो उसे अनुच्छेद 368 वाली लम्बी और कठिन प्रक्रिया को नहीं अपनाना होता है, सिर्फ एक साधारण कानून बनाकर राज्यों की सीमाओं और संरचना में बदलाव कर सकती है।
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सरल और तेज़ प्रक्रिया
जब अनुच्छेद 368 के तहत कोई संशोधन किया जाता है तो यह प्रक्रिया थोड़ी जटिल हो जाती है, इसकी तुलना में अनुच्छेद 4 के तहत किया जाने वाला संशोधन बहुत ही आसान और तेज होता है। जिसके कारण संसद को किसी नए राज्य के गठन और मौजूदा राज्यों के पुनर्गठन में सुविधा मिलती है।
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संसद को लचीलापन
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 4 संसद को लचीलापन प्रदान करता है। भारत जैसे विविधताओं से भरे हुए देश में समय-समय पर प्रशासनिक एवं राजनैतिक बदलावों की मांग होती रहती है। अनुच्छेद 4 यह सुनिश्चित करता है यह बदलाव संसद द्वारा तेजी से लागू किये जा सकें।
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Supplemental, Incidental और Consequential Matters
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 4 में "Supplemental, Incidental and Consequential matters" जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया गया है। इसका सीधा मतलब यह है कि-
- नए राज्य बनाने एवं सीमाओं को बदलने के साथ जुड़े सभी छोटे-बड़े बदलाव,
- संसद एवं विधानसभाओं में सीटों की संख्या,
- संसद में प्रतिनिधित्व,
- एवं अन्य प्रशासनिक व्यवस्थाओं
इन सभी को इसी अनुच्छेद के तहत समायोजित किया जा सकता है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 4 का महत्व
भारत एक संघीय ढाँचे वाला देश जरूर है, लेकिन इसके राज्यों की सीमाएँ स्थाई नहीं हैं। बदलते समय के साथ हमारी सामाजिक, सांस्कृतिक, भाषाई और प्रशासनिक ज़रूरतें बदलती रहती हैं। इन्ही बदलती परिस्थियों के कारण कई बार हमें नए राज्यों का गठन एवं मौजूदा राज्यों के पुनर्गठन की जरुरत पड़ती है।
अगर भारतीय संविधान का अनुच्छेद 4 मौजूद नहीं होता, तो हर बार जब हमें नया राज्य बनाना होता अथवा किसी मौजूदा राज्य की सीमा बदलनी होती तो संविधान में संसोधन की आवश्यकता होती और इस कार्य को करने के लिए हमें अनुच्छेद 368 की मदद लेनी होती। जिसके कारण यह कार्य काफी जटिल और लम्बा समय लेने वाला हो जाता।
यही पर अनुच्छेद 4 का महत्व बढ़ जाता है, क्योकि यह अनुच्छेद संसद को यह अधिकार देता है कि वह सिर्फ एक कानून बनाकर ही राज्यों की सीमाओं, संरचना और संसद/विधानसभाओं में सीटों से जुड़े बदलाव आसानी से कर सकती है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 4 के कारण-
- देश की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए राज्यों का गठन एवं पुनर्गठन आसान हो जाता है।
- संविधान को बार-बार बदलने की जटिल प्रक्रिया से बचा जा सकता है।
- भारतीय संघ अधिक लचीला और व्यवहारिक बना रहता है।
सरल शब्दों में कहें तो अनुच्छेद 4 भारतीय सविधान को अधिक लचीला एवं व्यवहारिक बनाता है, ताकि बदलते समय के साथ राज्यों का गठन एवं पुनर्गठन बिना किसी अड़चन के हो सके।
अनुच्छेद 4 से जुड़े महत्वपूर्ण उदाहरण
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 4 सिर्फ कागज पर लिखा हुआ कोई नियम नहीं है, बल्कि यह भारत के इतिहास में कई बार और कई बड़े बदलावों का गवाह रहा है। जब-जब देश में नए राज्यों का गठन किया गया या मौजूदा राज्यों की सीमाओं में बदलाव किये गए, तब-तब संसद ने अनुच्छेद 2 अथवा अनुच्छेद 3 के तहत कानून बनायें और अनुच्छेद 4 की मदद से संविधान की अनुसूचियों में जरुरी परिवर्तन किये।
आइये कुछ महत्वपूर्ण घटनाओं पर नजर डालते हैं-
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राज्य पुनर्गठन अधिनियम (1956)
यह भारतीय इतिहास का एक बहुत बड़ा बदलाव था, जब भाषा के आधार पर राज्यों का गठन किया गया। यह वह कालखंड था जब इसी अधिनियम का उपयोग करते हुए आंध्र प्रदेश, केरल और कर्नाटक जैसे राज्यों का निर्माण हुआ।
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हरियाणा का गठन (1966)
वर्ष 1966 में पंजाब से अलग करके हरियाणा राज्य बनाया गया। इस निर्णय के लिए प्रशासनिक एवं भाषाई दोनों ही कारण जिम्मेदार थे।
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मणिपुर, त्रिपुरा और मेघालय (1971)
वर्ष 1971 में मणिपुर, त्रिपुरा और मेघालय राज्यों ने पूर्ण राज्य का दर्जा प्राप्त किया, जिससे उत्तर पूर्व के राज्यों की राजनैतिक पहचान को मजबूती मिली।
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झारखंड, उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ (2000)
वर्ष 2000 में बिहार से झारखंड, उत्तर प्रदेश से उत्तराखंड और मध्य प्रदेश से छत्तीसगढ़ अलग करके नए राज्यों का गठन किया गया। यह कदम प्रशासनिक सुविधा एवं लम्बे समय से चली आ रही स्थानीय जनता के मांग का परिणाम थी।
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तेलंगाना का गठन (2014)
वर्ष 2014 में आंध्र-प्रदेश को विभाजित करके तेलंगाना राज्य बनाया गया। यह हाल की घटनाओं का सबसे बड़ा उदाहरण है, जिसने भारतीय संघ की संरचना को एक नया अध्याय दिया।
इन सभी मामलों से यह साफ हो जाता है कि भारतीय संविधान का अनुच्छेद 4 से संसद को सरल एवं प्रभावशाली प्रक्रिया प्राप्त होती है। संसद ने जब कभी भी राज्यों का गठन अथवा पुनर्गठन किया, तब सिर्फ कानून बनाकर ही संविधान के अनुसूचियों में जरुरी बदलाव कर दिए गए।
🎥 वीडियो: भारतीय संविधान का अनुच्छेद 4 सरल भाषा में
यदि आप इस विषय को पढ़ने के साथ-साथ वीडियो के माध्यम से भी समझना चाहते हैं, तो नीचे दी गई हमारी YouTube वीडियो ज़रूर देखें। इसमें अनुच्छेद 2: नए राज्यों का प्रवेश और स्थापना को आसान और स्पष्ट उदाहरणों के साथ समझाया गया है।
निष्कर्ष
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 4 यह साबित करता है कि हमारे संविधान में सिर्फ कठोर नियमों को ही नहीं रखा गया है, बल्कि यह देश को मजबूती प्रदान करने के लिए जहाँ कहीं भी जरुरत हो, लचीलापन एवं व्यवहारिक बनाने हेतु शक्ति भी प्रदान करता है। यह अनुच्छेद संसद को ऐसी शक्तियां प्रदान करता है, जिससे वह भारत की एकता और विविधता को ध्यान में रखते हुए नए राज्यों का गठन एवं मौजूदा राज्यों के पुनर्गठन आसानी से कर सकता है।
अगर अनुच्छेद 4 नहीं होता, तो शायद आज भारत इतने राज्यों वाला देश भी नहीं होता। जिससे प्रशासनिक ढाँचे को व्यवस्थित रखने में बहुत सारी मुश्किलें हो सकतीं थीं और शायद इसके कारण संघीय व्यवस्था भी कमजोर हो सकती थी। इसलिए यह कहा जा सकता है कि यह अनुच्छेद भारत को बदलते दौर के साथ और बदलती जरूरतों के साथ आगे बढ़ने की शक्ति प्रदान करता है।
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